Madhu varma

Add To collaction

लेखनी कविता - खिली सरसो - जगदीश गुप्त

खिली सरसो / जगदीश गुप्त


खिली सरसों, आँख के उस पार,
कितने मील पीले हो गए?

अंकुरों में फूट उठता हर्ष,
डूब कर उन्माद में प्रतिवर्ष,
पूछता है प्रश्न हरित कछार,
कितने मील पीले हो गए?

देखकर सच-सच कहो इस बार,
कितने मील पीले हो गए?

एक रंग में भी उभर आतीं,
खेत की चौकोर आकृतियाँ,
रूप का संगीत उपजातीं,
आयतों की मौन आवृतियाँ,

चने के घुंघरू रहे खनकार,
कितने मील पीले हो गए?
मटर की पायल रही झनकार
कितने मील पीले हो गए?

पाखियों के स्वर हवा के संग,
आँज देते बादलों के अंग,
मोर की लाली हुई लाचार,
कितने मील पीले हो गए?

देखती प्रतिबिम्ब रूककर धार,
कितने मील पीले हो गए?

   1
0 Comments